Thursday, October 31, 2013

फिर चार लाइने हैं ...

फिर चार लाइने हैं ... घर के ब्रह्माण्ड-मंत्री के आदेश (वे कभी-कभी इसे डिमांड भी कहती हैं) पर। लाइने काफी पुरानी पर अप्रकाशित हैं।   

सहेज के रखे हैं मैंने इस दिल के टुकड़े,
के कभी न कभी तू इस दिल में बसी थी .
सात तालों में रखा है वो रास्ते का पत्थर,
जिससे मैं लड़खड़ाया था, और तू हंसी थी .
                                      -------- विद्रोही-भिक्षुक  

Wednesday, October 30, 2013

फिर चार लाइने हैं...

फिर चार लाइने हैं...

वो फ़नकार है बड़ा , उसका बड़ा नाम है
तहख़ाने में उसके हड्डियाँ तमाम हैं
उन्हें फिर से वज़ीर चलो मिल के हम चुन लें
सुनते हैं सर पे उनके तगड़ा इनाम है

                     ---विद्रोही भिक्षुक



Thursday, October 24, 2013

जीवन जीने के 101 तरीके

प्रस्तुत है मेरी नयी कहानी। ये कहानी कन्फ्यूस्ड है. मेरी तरह। पूर्ण-विराम और पीरियड में कन्फ्यूस्ड, कहानी और नोवेल में कन्फ्यूस्ड, अदि और अंत में कन्फ्यूस्ड। और इसके साथ ही मैं नाता तोड़ता हूँ अपनी सभी अपूर्ण, अनंत, अगम्य, अगोचर और अन-लोकेटैबल कहानियों से . ये न्यू है और पाईरेटेड है, वरिजिनल है और अनूदित है, कुल मिला के कहनियै है.

तो ये कहानी फ्राइडे को शुरू होती है, लन्दन से। अब शुरू ये लखीमपुर से भी हो सकती है ऐसा कौनो खास नहीं है लन्दन में। लेकिन हिंदी लेखक जब लन्दन लिखता है तो अलग ही अफेक्ट डालता है. जनता सोचती है भिखमंगा नहीं होगा जब पहुंचा है सात समन्दर पार; भले टिकट कोई दिया हो, कपडा-खाना जो जुगाड़ किया होगा। दूसरा ये कहानी एक किताब के बारे में है, 'जीवन जीने के 101 तरीके'. और हाँ ये कहानी भविष्य में घटित होती है या भविष्य में लिखी जायेगी ये पूर्णतया ज्ञात नहीं है. यानि की ये कहानी 'देश-काल-वातावरण' के उस छोर पे टिकी है जहाँ पर स्पेस-टाइम convergially diverge हो रहा है. यानि की इसमें टाइम-ट्रेवल से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ये कहानी रियल-टाइम में लिखी जा रही है, पर लेखक और टाइम दोनों ही प्रकाश की गति से भी तेज चलायमान है क्योंकि दोनों की पत्नियाँ उनका पीछा कर रही हैं . हाँ तो इस काम्प्लेक्स फ्राइडे की कहानी, उसके भयंकर परिणामों की कहानी, उन भयंकर परिणामों के आपस में उलझने की कहानी, उस उलझन की हमारे जीवन से जुड़ने की कहानी, और हमारे जीवन की 'जीवन जीने के 101 तरीके' नामक पुस्तक पर निर्भरता की कहानी, ये सब प्रारंभ होता है एक साधारण सी प्रतीत होती जगह से, ये जगह है एक घर।

(नोट: जीवन जीने के तरीके तेज़ी से खत्म हो रहे हैं मिस्टर एंडरसन, आखिरी बार सफलतापूर्वक जीवन सन सत्तावन में जिया गया था . वैज्ञानिकों ने भरसक प्रयत्न कर के मिट्टी से ये खोज निकला है की बिना जिन्दगी के जीवन कैसे जियें। अभी तक इसके 100.5  तरीके ज्ञात हैं। इसको राउंड-ऑफ़ करके 101 कर दिया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक तक ऐसे संकेत मिले हैं कि जीवन ज़िंदगी के साथ जिया गया, उसके बाद जिन्दगी को रिप्लेस किया कम्प्यूटर ने, हालांकि इस बारे में वैज्ञानिकों में मतभेद हैं की कम्प्यूटर जड़ था या चेतन, उसको किसी दूसरी आकाश-गंगा ने भेजा था, या वह स्वयं म्यूटेशन द्वारा उत्पन्न हुआ। भिन्न-भिन्न महाद्वीपों और भिन्न-भिन्न ग्रहों पर हुई खुदाई से उस समय के मनुष्य के बारे निम्नलिखित जानकारी प्राप्त हुई है:

१. द कोडर मैन -- यह मुख्यतः ऐशिया महाद्वीप में पाया गया है। इसकी आखें धंसी हुई, मुख प्रायः खुला हुआ, नथुने बड़े, मस्तिष्क न के बराबर और 'भावनाएं' इस तत्व से वंचित बताया गया है. भारतीय उप-महाद्वीप में इनके निर्माण के अगणित कारखाने प्राप्त हुए हैं। अब ये घर-घर में निर्मित होते थे, कुटीर उद्योग था या ओर्गैनाइसड सेक्टर इसके बारे में मतभेद है।  

२. द बम मैन -- यह मुख्यतः भारतीय उप महाद्वीप के पश्चिम में पाया गया है। इनके बारे में संदेह है की ये मनुष्य प्रजाति के थे या घंटा (ये एक प्रजाति है जो पृथ्वी से दूर 'टिकलू' आकाश-गंगा में नहीं पाई जाती है) प्रजाति के। ये एक-दूसरे को 'बम' इस नमक वस्तु से मार-मार के खेलते थे. कहते हैं इसी चक्कर में इनका खेल हो गया।

३. ड क्लाइंट मैन -- यह मुख्यतः उत्तरी अमरीका में पाया गया है। इनके बारे में ज्ञात है की ये 'हरे-हरे' कागज़ के टुकड़े से कुछ-कुछ करके सब-कुछ करा सकता था। यह बड़े ही अचरज का विषय है की ऐसे ही कुछ कागज़ के टुकड़े सुदूर एशिया महाद्वीप में 'द कोडर मैन ' की जेबों से भी प्राप्त हुए हैं। वैज्ञानिकों का मत है की यही हरे कागज़ के टुकड़े सारे फसाद की जड़ रहे होंगे।

४. द क्लोन मैन -- यह एशिया के सबसे बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था। कहते हैं ये हर चीज़ की क्लोनिंग कर सकने में समर्थ था। कुछ वैज्ञानिकों का मत है की इक्कसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक उसने पृथ्वी का डुप्लीकेट बना कर उस पर 'मेड इन चाइना'  ऐसे शब्द लिख दिए।

फेसबुक -- अब यह विषय था, वस्तु था, स्थान था या व्यक्ति इस बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। परन्तु वैज्ञानिकों का कहना है की यह जीवन-और ज़िंदगी के बीच की अंतिम कड़ी थी। 'जीवन जीने के 101 तरीके' पुस्तक से पहले यही ज्ञात है की जीवन इसी के माध्यम से जिया जाता था। मनुष्य जाति की इस वस्तु पर पूर्ण निर्भरता ही महाप्रलय का कारण बनी। कहते हैं एक ऐसे ही फ्राइडे-नाईट को यह वस्तु पूरे साढ़े तीन टिकलू मिनट (टिकलू आकाश गंगा से मापा गया समय) डाउन रही और उसके साथ ही जीवन से ज़िंदगी का लिंक भी डाउन हो गया .

आज हालत ये है की 'ज़िंदगी जीने के 101 तरीके' नमक पुस्तक ही एक-मात्र सहारा है जिसके माध्यम से ज़िंदगी बच सकती है। कहते हैं वो पृथ्वी नामक ग्रह पर बड़ी ही जर्जर अवस्था में है। उसके पन्ने पेपर के बने हैं और वे पीले हो के येल्लो हो गए हैं।)                                                                          

अध्याय १

तो ये घर उत्तरी लन्दन के पूर्वी फ़िंचली इलाके की हाई रोड के एक कोने में खड़ा था . मज़े की बात ये है कि यह अपने पैरों पर खड़ा था और लगातार हाई रोड को अपनी चार आँखों से घूरे पड़ा था। उसकी चार आँखें वो चार खिड़कियां थीं जो उसपर इस आकार-प्रकार से जड़ी हुई थीं कि आपकी आँखों को अधिकतम चुभ सकें . बनाने वाले ने भी भरसक प्रयास किया था कि हाई रोड से गुजरने वाला अँधा भी इस तीस वर्ष पुराने, काली ईंटों से बने शीश-महल से आँखें चार किये बिना और ये कहे बिना 'अबे तू ढह क्यूँ नहीं जाता' न निकल सके।

सम्पूर्ण बृह्मांड में एक व्यक्ति था जसके लिए यह घर ख़ास था, राम परसाद। वो इसलिए कि उसका इस घर से एक रिश्ता था, रिहाइश का रिश्ता, आसरे का रिश्ता। परसाद बाबू और इस घर में आश्चर्यजनक समानताएँ थीं। दोनों लगभग तीस के थे, दोनों की चार आखें  थीं और वो उनके चेहरों पर इस प्रकार से जड़ी हुई थीं कि आपकी आँखों को वो अधिकतम चुभ सकें और दोनों ही एक दूसरे पर आश्रित थे। घर के गिरते ही राम बाबू का ढहना निश्चित था और राम बाबू के निकलते ही घर का ढहना। हालाँकि दो एक्स्ट्रा आँखें लगवाने के बाद भी राम बाबू शायद ही कभी आराम से रहे हों। रह-रह कर उन्हें पिकाडिली सर्कस पर प्रकाशित 'प्रकाश-आँखें' वाला विज्ञापन याद आता। जब से 'प्रकाश-आँखें' नामक कंपनी की लाइट बुझी है, उनकी दो एक्स्ट्रा आँखें एसेट कम लाइबिलिटी ज्यादा थी।

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देखने जाते हैं, आँख नहीं मिलती, पुतली खराब, रेटिना खराब, कटोरा ख़राब, तरह-तरह की परेशानी, आँख आ जाती है, पानी बहने लगता है। ये लो भईया 'प्रकाश-आँखें' अभी लगाओ अभी आराम। ऑफिस में काम का लोड, बीवी मल्टी-टास्किंग करती है, दो आँखों से काम नहीं चलता, प्रेम में बाधा- काने प्रेमी तुरंत मिलें। अभी आर्डर करने पर हर आँख के साथ पलक मुफ्त।
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विज्ञापन देखते ही राम बाबू ने नीली पलकों के साथ एक जोड़ी आँखें आर्डर कर दीं। कुछ एक साल तो आराम से बीते, 'प्रकाश-आँखें' मल्टी-प्लेनेट कॉर्पोरेशन था। लगभग सारे ग्रहों पर उनकी आँखें ही बिकती थीं। लेकिन नयी डिजिटल आँखों ने धीरे-धीरे उनका मार्किट खाना शुरू किया। उनकी बनाई आँखों में एक कमी थी- उनकी पलकें हर सात सेकेण्ड में झपकती थीं। 'अँधेरा-आईज' ने बिना पलकों वाली पोर्टेबल स्मार्ट आईज निकाल कर उनकी कमर ही तोड़ दी। पलक-लेस टेक्नोलॉजी विथ 2.5 खोपचा-हर्ट्ज़ प्रोसेसर विथ एन इनबिल्ट टोस्टर, अवन, रेफ्रीजिरेटर एंड मोटर-कार। यहाँ तक सुनने में आया कि दिल्ली में परेशान पेरेंट्स के लिए कुछ कम्पनीज़ ने इनबिल्ट नर्सरी-स्कूल्स भी दिए। अब इन स्टेट-ऑफ़-द-आर्ट टेक्नोलॉजी के सामने राम बाबू के 'प्रकाश' दिए कब तक जलते. कम्पनी दीवालिया हुई तो आफ्टर-सेल्स सर्विस भी बंद हो गयी। मन्नू-मिस्त्री कभी-कभार तेल पालिश लगा कर चला देता है।

मतलब कुल मिलाकर राम बाबू परेशान थे। लेकिन जिस बात से वे सबसे ज्यादा परेशान थे वह था लोगों का उनसे पूछना 'परेशान  क्यूँ हो भाई?' वे एक लोकल दर्ज़ी की दुकान में कोडर थे। वे अक्सर अपने दोस्तों से कहते कि उनका काम भी काफी रोमांचक है। उनके दोस्त UASA(Universal Aeronautics and Space Administration) में साइंटिस्ट थे।   

कल काफी बारिश हुई थी जिसकी वजह से हाई रोड पर ज़रा भी कीचड नहीं था। लेकिन आज सूर्य देवता मेहरबान थे, शायद इसलिए कि राम बाबू की और उनके घर की कुल मिलाकर आठ आँखें ये नज़ारा आख़िरी बार देख रही थी। सूरज की लीज़, वारंटी और सपोर्ट तीनो खतम हो रहे थे और लन्दन काउंसिल के पास पैसे नहीं थे कि वॉरंटी एक्सटेंड कर सके। 

Sunday, October 20, 2013

"वो लास्ट सेमेस्टर"

वैसे इस कहानी को लिखने से पहले मुझे "डिसक्लेमर" देना बहुत ज़रूरी है वरना तरह तरह के सवाल ज़माना पूछेगा, लोग और लुगाइयाँ तरह तरह के कयास लगायेंगे. हजारों दिल टूट जायेंगे, लाखों सर फूट जायेंगे.
डिसक्लेमर: इस कहानी का सत्य एवं वास्तविकता से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है. पात्र एवं घटनाएं पूरी तरह काल्पनिक हैं. यदि पात्रों के नाम अथवा हरकतें आपसे मेल खाते प्रतीत हों तो इसे अपनी बदनसीबी समझ कर भूल जाएं और चाहते हुए भी ये मान लें की आप एक बड़े ही आम इंसान हैं की आपका जीवन मेरी कल्पना के कितना करीब है. वैसे मेरी कल्पना आज कल किसके कितने करीब है ये तो मैं भी जानना चाहता हूँ.
कहानी शुरू करता हूँ कल्पना से, कल्पना आज भी बड़े बड़े डग भरती हुई पहली क्लास शुरू होने से पहले ही पहुँच जाना चाहती थी. मैं आज तक ये नहीं जान पाया की वह सबसे पहले जाकर वहाँ क्या करती थी. अव्वल तो इसके लिए मुझे उससे पहले उठाना पड़ता और दुअल ये की उठने के लिए मुझे रात मे सोना पड़ता. लेकिन आज मैंने उसे पकड़ ही लिया. अब पकड़ कैसे लिया? इससे ये बात तो पूरी तरह साफ हो गयी कि आज रात मैं सोया नहीं था. हम सारी रात बास्की* ग्राउंड में फ्रेंच इकोनोमी पर डिस्कशन कर रहे थे. काफी सुबह हो गयी है इसका पता हमें चेहरे पर पडी चिलचिलाती धूप से लगा और नौ बज गए हैं इसका पता कल्पना की चाल से. खैर दोस्तों को कल्टी मार के मैं उसके पीछे पीछे चल पड़ा एक गज़ब की चाल मेरे दिमाग मे घर चुकी थी।


"अरे! कल्पना सुनो, "

"क्या , बोलो! " उसके अंदाज़ में इतना तिरस्कार था, खैर मैं इसका आदी था, एक टॉपर को इसका अधिकार था और मैं उस अधिकार का पूर्ण सम्मान करता था।

"मेरी कल श्रीवास्तव सर से बात हुई और वो कह रहे थे की हमें कल तक रिपोर्ट जमा करनी है।"

" तो मैं क्या करूं"

"यार तुम तो जानती हो की मैंने अभी तक एक पेज भी नहीं लिखा है""

तो यहाँ खड़े क्या कर रहे हो? क्लास तो तुम्हे वैसे भी नहीं आना है तो रूम पर जा कर रिपोर्ट ही बनाओ।""

यार २०० पेज कैसे लिखे जा सकते हैं एक दिन मे ""२०० नहीं ४०० और २-डी Filters का मिला के ५० पेज और""मुझसे नहीं होगा। मैं सोच रहा हूँ कल गोला मार दूँ""पागल हो गए हो क्या??" उसने इतनी ज़ोर से चिल्ला कर कहा कि गैलरी से निकल रहा एक पूरा हुजूम हमें नोटिस किए बिना न रह सका। "और तुमने तो फर्स्ट मिड-टर्म भी नहीं दिया था""कल्पना, अब तुम ही मुझे फेल होने से बचा सकती हो.""नहीं इस बार तो हम एक पन्ना नहीं लिखेंगे""प्लीज़ ... ". 17-02-2008