Wednesday, September 11, 2013

सोर्स

बात पुरानी है. मैं, अप्पू और सोनू मेरी लंगडी लूना पर क्रिकेट-किट लादे पी.एन.टी. ग्राउंड की ओर रेंगते चले जा रहे थे। गियर वाली गाड़ी, बिना कागज, बिना डी.एल., ट्रिपलिंग; चाक-चौकन्ना रहना बहुत ज़रूरी था। पर वक़्त बुरा हो तो ऊँट पर बैठे लंगड़े आदमी को भी पामेरियन काट लेता है। तो हमारा पामेरियन, सब-इन्स्पेक्टर दोहरे सहायता चौकी पे घात लगाये बैठा था। कोशिश बहुत की हमने, गाड़ी मोड़  लें, कट लें लेकिन पामेरियन उछल के काट लिहिस।
कहाँ?
सर, बस पी.एन.टी. तक जा रहे थे।
लाइसेंस, प्रदूषण, आर.सी., इंश्योरेंस निकालो, नहीं है तो गाड़ी खड़ी करो। सीज़ करो।
सर ... सर ...
ट्रिपलिंग का तेरह सौ, हेलमेट नहीं है तीन सौ, उसका तो चालन कटेगा
हम सर सर करते रहे, वो हमें इगनोर करता रहा। अपनी कमाई कर के वो हमारी तरफ मुखातिब हुआ।
कहाँ रहते हो?
मैंने लीड ली, मुझे पता था क्या बोलना है, "सचिवालय कालोनी में, सर"
"क्या करते हैं पिताजी तुम्हारे?"
"सर, होम में जॉइंट-सेक्रेटरी हैं," होम पर मैंने जोर दिया। उसकी मुख-मुद्रा कुछ नर्म हुई
"और तुम्हारे?", उसने अप्पू से पूछा
"सर, जनसत्ता के एडिटर हैं" अब तक वह अपनी बुलेट से उतर चुका था।
"और तुम्हारे?", "कह दो गवर्नर हैं", वो हंसने लगा
"नहीं सर, गवर्नर के पी. ऐ. हैं "
"सही है भाई, अबे तिवारी, हियाँ आओ तुमका दिखाई इतना सोर्स लिए ये लूना पे चल रहे हैं", "इनके पिताजी संयुक्त-सचिव हैं होम में, इनके एडिटर हैं और इनके राज्यपाल के पी. ऐ."
"बेटा, तुम लोग लूना काहे चला रहे हो? इतना सोर्स ले के चल रहे हो, तुम लोगों को तो आदमी जोत के चलना चाहिए"
 उसने इशारा किया, हम निकल लिए                                      

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