Monday, May 24, 2010

मेरे घर की टूटी खिड़की से

मेरे घर की टूटी खिड़की से, कुछ-कुछ धूप भी आती है कुछ-कुछ छाँव भी आती है.
अब तक वो शहरों में गुम थी, घने चार पहरों में गुम थी,
वो उजली सी, वो बिजली सी, सीमित वन में नहीं कदाचित,
मेरे गाँव भी आती है.
मेरे घर की टूटी खिड़की से, कुछ-कुछ धूप भी आती है कुछ-कुछ छाँव भी आती है.

हो मंगल का मेला, या जुमेरात की रात कव्वाली,
सीपी-शंख की मेलें छन-छन, झांझर-झुमके, बुर्के वाली.
क्रंदन कोलाहल बच्चों का, समझ सयानी शर्म की लाली.
चपल भागती कभी सरापट, झिझकी कभी, कभी कदाचित,
दबे पाँव भी आती है,
मेरे घर की टूटी खिड़की से, कुछ-कुछ धूप भी आती है कुछ-कुछ छाँव भी आती है.

गिरजाघर के घंटे टन-टन, जगराते की रात का मजमा,
भजन कीर्तन ढपली ढोलक, साखी सबद रमैनी अबतक,
कभी जगद-आरती जगदम्बा की, कभी अफ्तारी का घोष कदाचित, कभी
भोर अज़ान भी आती है.
मेरे घर की टूटी खिड़की से, कुछ-कुछ धूप भी आती है कुछ-कुछ छाँव भी आती है.

4 comments:

Jeetendra said...

Kya khoob likhte ho suprem bhai aapki lekhni ke asar se hum software Engineer ban gaye hai pata bhi hai aapko (hamare jamane ki prem katha remembered). Hamesha aise hi likhte rahiye bhagwan se prarthna hai ki aapko bahut si safalta our samay de likhne ke liye..!

Shailoo said...

Ka khoob likhat ho .. waise maine pura padha nahi ... agar itni padhne ki shramta apne andar hoti to khud hi likh deta :)

pawan said...

सीपी-शंख की मेलें
छन-छन, झांझर-झुमके, बुर्के वाली.
क्रंदन कोलाहल बच्चों का
समझ सयानी शर्म की लाली ||

बहुत खूब !!

पुन: स्वछन्द मुस्कान दिलाने के लिए आभार|

यथार्थ से जोड़ने के लिए भी साधुवाद !!

Unknown said...

anayasss hi bachpane ki yaado me le gayi tumhari ye kavita..
hriday dravit ho utha bandhu..!!