Monday, August 2, 2010

गाँव

दूरी कम , राह बड़ी, पर चल निकले हैं तय करने को,
इधर नदी है सूखी-सिमटी, उधर हमारी पड़ी नाव है.

बची रौशनी बुझी पड़ी है , सिगर रंग भी फीक चले हैं,
रुकते चलते, चलते रुकते जाना अपने बड़े गाँव है.

रात जमे कब, रब ही जाने, झींगुर कब गाने पाएंगे,
घिसट-घिसट कर दिन भर बीता, शाम की छत पर बड़ा घाम है.

तुम मंदिर में सुस्ता लेना, तुम मस्जिद में डेर जमाना,
मैं थोड़ा बगिया तक हो लूं, उधर हमारे बड़ी छाँव है.

तख्ती ले लो, हाथ गुदा लो, लो पर्ची पहचानों की,
हम जायेंगे हाथ हिलाते, वहां हमारा बड़ा नाम है.

.........................सुप्रेम त्रिवेदी

5 comments:

Udan Tashtari said...

बढ़िया.

Abhijit Tiwari said...

Bahut badhiya.....

pawan said...

तुम मंदिर में सुस्ता लेना, तुम मस्जिद में डेर जमाना,
मैं थोड़ा बगिया तक हो लूं, उधर हमारे बड़ी छाँव है||


अति सुंदर !! धन्यवाद सुप्रेम जी

Bloggy said...

dhanyawad!!!

deepak tiwari said...

उत्तम! अति उत्तम! दिल जीत लिया आज आपने सुप्रेमजी!!
लिखते रहिये
अति उत्तम!